भगवद गीता का तृतीय अध्याय ‘कर्म योग’ कहलाता है, जिसका अर्थ है – कर्म के माध्यम से योग।
परिचय:

भगवद गीता का तृतीय अध्याय “कर्म योग” कहलाता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म के महत्व, निष्काम कर्म और जीवन में अपने धर्म का पालन करने की आवश्यकता को समझाते हैं। अर्जुन युद्ध से विमुख होकर ज्ञान और वैराग्य का मार्ग अपनाने की इच्छा जताता है, लेकिन श्रीकृष्ण उसे कर्म करने की ओर प्रेरित करते हैं। यह अध्याय जीवन में कार्य, कर्तव्य और निष्काम भाव से कर्म करने के दर्शन को समझाता है।
तृतीय अध्याय की मुख्य बातें:
1. ज्ञान योग बनाम कर्म योग:
अर्जुन पूछता है कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो वह युद्ध करने जैसे कर्म में क्यों लगाए जा रहे हैं। इस पर श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं कि केवल ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है, जब तक व्यक्ति अपने कर्म नहीं करता। मनुष्य का स्वभाव उसे कर्म करने के लिए प्रेरित करता है और यह संसार कर्म से ही चलता है।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि केवल ज्ञान के माध्यम से सिद्धि प्राप्त नहीं होती। ज्ञान को कर्म में उतारना आवश्यक है। कर्म से विमुख होकर कोई मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। अत: ज्ञान के साथ कर्म भी उतना ही आवश्यक है।
2. कर्म का महत्व और समाज में इसकी भूमिका:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के साथ ही यज्ञ और कर्म का विधान किया था। उन्होंने कहा कि यज्ञ से देवता संतुष्ट होते हैं और देवता हमें जीवन की आवश्यक वस्तुएं प्रदान करते हैं। इस तरह यह पारस्परिक संबंध बना रहता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। जो व्यक्ति केवल खाने के लिए जीता है, पर सेवा या योगदान नहीं करता, वह पापी कहलाता है।
3. निष्काम कर्म:
कर्म योग का मूल सिद्धांत है “निष्काम कर्म” अर्थात फल की इच्छा किए बिना कर्म करना। श्रीकृष्ण कहते हैं:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥”
अर्थात: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का कारण मत बन और कर्म न करने में भी आसक्त मत हो।
यह श्लोक गीता का सार माना जाता है। इसमें बताया गया है कि मनुष्य को ईमानदारी और निष्ठा से अपना कर्तव्य करना चाहिए, बिना किसी स्वार्थ या लाभ की भावना के।
4. आदर्श व्यक्तियों का व्यवहार:
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि श्रेष्ठ व्यक्ति जो करता है, वही सामान्य जन भी अनुसरण करते हैं। इसलिए एक ज्ञानी व्यक्ति को भी कर्म करना चाहिए ताकि समाज में कर्म की परंपरा बनी रहे। यदि ज्ञानी लोग कर्म नहीं करेंगे, तो साधारण लोग भी आलस्य और अकर्मण्यता की ओर मुड़ जाएंगे।
इसलिए भगवान स्वयं भी कर्म करते हैं, जैसे वे सृष्टि का संचालन करते हैं, अवतार लेते हैं, युद्ध में भाग लेते हैं – जबकि उन्हें किसी फल की आवश्यकता नहीं है।
5. प्रकृति और गुणों का प्रभाव:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी कर्म प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रज, तम) से ही होते हैं। यह शरीर और मन इन्हीं गुणों के प्रभाव से प्रेरित होता है। आत्मा तो इन सबसे परे है।
मूर्ख व्यक्ति अपने को कर्ता मान लेता है, जबकि ज्ञानी जानता है कि प्रकृति के गुण ही कर्म करा रहे हैं। इसलिए हमें अपने कर्म करते रहना चाहिए और “मैं करता हूँ” की भावना को त्याग देना चाहिए।
6. इन्द्रियों पर संयम और स्वधर्म का पालन:
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि इन्द्रियाँ मनुष्य को भ्रमित करती हैं। इसलिए इन्द्रिय संयम अति आवश्यक है। बिना संयम के मनुष्य सही निर्णय नहीं ले सकता। मनुष्य को अपने स्वधर्म (व्यक्तिगत एवं सामाजिक कर्तव्य) का पालन करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कठिन या कम आकर्षक क्यों न हो।
“श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।”
अर्थात: अपने दोषयुक्त धर्म का पालन करना, दूसरों के धर्म का उत्तम पालन करने से श्रेष्ठ है।
यह अर्जुन को स्पष्ट संकेत है कि वह एक क्षत्रिय है और युद्ध उसका धर्म है। उसे इससे विमुख नहीं होना चाहिए।
7. काम और क्रोध – सबसे बड़े शत्रु:
श्रीकृष्ण काम (इच्छा) को सबसे बड़ा शत्रु बताते हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो क्रोध उत्पन्न होता है और यह विवेक को नष्ट कर देता है। यही कारण है कि मनुष्य पतन की ओर चला जाता है।
इसलिए काम, क्रोध और लोभ को जीतना ही आत्म-संयम का मार्ग है। श्रीकृष्ण काम को रजोगुण से उत्पन्न बताते हैं जो अग्नि की तरह सब कुछ भस्म कर देता है।

शिक्षाएं (Lessons Learned from Chapter 3):
1. कर्तव्य ही धर्म है
अपने कार्य और उत्तरदायित्वों से भागना जीवन का समाधान नहीं है। हर व्यक्ति को अपने जीवन में मिले कर्मों को निभाना चाहिए, चाहे वे कठिन ही क्यों न हों।
2. फल की इच्छा न करें
निष्काम भाव से किया गया कर्म ही मोक्ष का मार्ग है। जब हम बिना फल की चिंता किए कर्म करते हैं, तब हम भीतर से मुक्त होते हैं।
3. स्वधर्म सर्वोपरि है
दूसरों का कार्य देखकर अपने धर्म से हटना उचित नहीं। हर व्यक्ति के लिए उसका अपना धर्म, चाहे कठिन या साधारण क्यों न हो, सबसे श्रेष्ठ है।
4. इच्छा और क्रोध पर नियंत्रण जरूरी है
काम और क्रोध हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं। इन्हें ज्ञान और साधना के माध्यम से नियंत्रित करना आवश्यक है।
5. संसार में रहते हुए भी योगी बना जा सकता है
योग का मतलब सन्यास नहीं, बल्कि संसार में रहते हुए ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करना है।

निष्कर्ष:
गीता का तृतीय अध्याय यह शिक्षा देता है कि केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं है, जब तक वह कर्म में न उतरे। संसार का संचालन कर्म से होता है। मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, वह भी निष्काम भाव से – बिना फल की इच्छा किए। इस प्रकार कर्म करना ही मोक्ष का मार्ग है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को बार-बार यही प्रेरणा देते हैं कि वह युद्ध करे, क्योंकि वह उसका स्वधर्म है। यदि वह युद्ध से भागेगा, तो अधर्म की विजय होगी और समाज का संतुलन बिगड़ेगा।
यह अध्याय हमें यही सिखाता है कि जीवन में निष्काम कर्म, आत्म-नियंत्रण और धर्म का पालन ही सच्चे योगी का मार्ग है। जो व्यक्ति इन सिद्धांतों पर चलता है, वही शांति और परम उद्देश्य की प्राप्ति करता है।