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Bhagavad Gita Chapter 5

कर्म और संन्यास में संतुलन सिखाता पाँचवां अध्याय , आत्मज्ञान, समदृष्टि और मोक्ष की ओर ले जाने वाला भगवद गीता का आध्यात्मिक मार्ग।

Bhagavad Gita Chapter 5

भूमिका:

गवद गीता का पाँचवां अध्याय “संन्यास योग” कहलाता है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संन्यास (कर्मत्याग) और कर्मयोग (निष्काम कर्म) के बीच का अंतर, सामंजस्य और श्रेष्ठता समझाते हैं। यह अध्याय बताता है कि केवल कर्म का त्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग ही सच्चा योग है।

पाँचवां अध्याय  का सार:

1. संन्यास और कर्मयोग का तुलनात्मक विवेचन

अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि कर्म का त्याग श्रेष्ठ है या कर्म करते हुए योग में स्थिर रहना। भगवान उत्तर देते हैं कि दोनों मार्गों से मोक्ष संभव है, लेकिन कर्मयोग अधिक व्यावहारिक और शीघ्र फलदायक है। कर्मयोगी अहंकार रहित होकर कर्म करता है, जबकि संन्यासी को भी बिना आसक्ति के ही जीना होता है।

2. आत्मज्ञानी की स्थिति

भगवान बताते हैं कि जो व्यक्ति आत्मा को जानता है, वह समदर्शी होता है। वह ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चांडाल में एक ही आत्मा को देखता है। ऐसा ज्ञानी न तो किसी से द्वेष करता है और न किसी से मोह करता है।

मुख्य श्लोक: विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

3. सुख-दुख से परे स्थित योगी

योगी कर्म करता है लेकिन “मैं करता हूँ” की भावना से मुक्त रहता है। वह सभी कर्मों को ईश्वर को अर्पण करता है। वह न पुण्य का अभिमान करता है और न पाप से भयभीत होता है। आत्मसुख में स्थित होकर वह परम आनंद का अनुभव करता है।

4. इन्द्रिय सुख का त्याग और आत्मसुख की प्राप्ति

इन्द्रिय सुख क्षणिक और अंततः दुःखदाई होता है। बुद्धिमान व्यक्ति इनसे ऊपर उठकर आत्मा में स्थित रहता है। जो इन्द्रियों को संयम में रखता है, वह सच्चा योगी बनता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

5. ध्यानस्थ योगी और परम शांति

भगवान बताते हैं कि जो क्रोध और कामनाओं को त्यागकर ध्यान में लीन होता है, वह शुद्ध चित्त से ब्रह्म को प्राप्त करता है। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं:

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥

(जो यह जानता है कि मैं यज्ञ और तप का भोक्ता हूँ, समस्त लोकों का स्वामी और सभी प्राणियों का सच्चा मित्र हूँ – वह मुझे जानकर परम शांति को प्राप्त होता है।)

Chapter 5, Moksh gyan

आध्यात्मिक संदेश:

  • केवल कर्मों का त्याग ही संन्यास नहीं है, अपितु फल की इच्छा और अहंकार का त्याग ही सच्चा योग है।
  • ज्ञानी पुरुष समदर्शी होता है, और आत्मा में स्थित रहकर परम आनंद का अनुभव करता है।
  • मोक्ष का मार्ग कर्मयोग से होकर भी संभव है, बशर्ते व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करे।
  • जो व्यक्ति ईश्वर को समर्पण कर देता है, उसे न पाप बांधता है न पुण्य।

निष्कर्ष:

भगवद गीता का यह अध्याय स्पष्ट करता है कि संन्यास और कर्मयोग दोनों ही श्रेष्ठ हैं, लेकिन कर्मयोग अधिक व्यावहारिक है। आत्मज्ञानी व्यक्ति कर्म करते हुए भी परमात्मा में स्थित रहता है। संन्यास और कर्मयोग का सही समन्वय ही मोक्ष की ओर ले जाता है।

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