भगवद गीता – अध्याय 6: ध्यान योग (ध्यान का मार्ग) और महत्व
परिचय:
भगवद गीता का छठा अध्याय “ध्यान योग” कहलाता है। यह अध्याय मुख्यतः आत्म-संयम, एकाग्रता और परमात्मा के साथ आत्मा की एकता के विषय पर केंद्रित है। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि सच्चा योगी कौन होता है, ध्यान कैसे किया जाता है, और ध्यान से क्या लाभ प्राप्त होते हैं।
यह अध्याय 47 श्लोकों में विभाजित है और इसमें निम्नलिखित प्रमुख विषय शामिल हैं:

🔹 1. त्याग और कर्मयोग का संबंध
श्रीकृष्ण ध्यान योग की शुरुआत करते हैं यह बताकर कि सच्चा संन्यासी और सच्चा योगी वही है जो बिना फल की इच्छा के अपना कर्म करता है।
- जो व्यक्ति न तो कर्म का त्याग करता है और न ही कर्मफल की इच्छा करता है, वही सच्चा योगी और संन्यासी है।
- योग और संन्यास में अंतर नहीं है; दोनों का आधार कर्म का त्याग और मन का संयम है।
सच्चे योगी के लक्षण:
- जो मोह और कामनाओं से मुक्त है।
- जो आत्म-नियंत्रण रखता है।
- जो अपने भीतर संतुष्ट है।
- जो मित्र, शत्रु, और अपरिचितों के प्रति समदृष्टि रखता है।
यह भाग यह स्पष्ट करता है कि केवल बाहरी त्याग ही संन्यास नहीं है। असली त्याग मानसिक होता है, जब हम फल की कामना किए बिना कार्य करते हैं।
🔹 2. ध्यान की विधि और अनुशासन
यह भाग ध्यान साधना की व्यवहारिक विधि को बताता है।
ध्यान का वातावरण और आसन:
- एकांत स्थान में रहकर योगी को एकाग्रचित्त होकर ध्यान करना चाहिए।
- ध्यान के लिए उचित आसन की व्यवस्था हो – कुशा घास, मृगछाला और वस्त्र। आसन न बहुत ऊँचा हो न नीचा। उस पर स्थिर होकर मन को एक बिंदु पर लगाना चाहिए।
शरीर और मन की स्थिति:
- शरीर, गर्दन और सिर को सीधा रखकर योगी को अपनी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकानी चाहिए। मन शांत, निडर और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला हो।
जीवन में संतुलन का महत्व:
- ध्यान की सफलता के लिए संयमित जीवन आवश्यक है। न तो बहुत अधिक खाना चाहिए, न बहुत कम; न अधिक सोना, न अधिक जागना।
यह भाग बताता है कि ध्यान केवल बैठकर आँख बंद करने का नाम नहीं, बल्कि इसका मूल आधार है संयमित जीवन, मन की स्थिरता और उद्देश्य के प्रति पूर्ण निष्ठा।
🔹 3. सिद्ध योगी की अवस्था
यहाँ श्रीकृष्ण ध्यान की सिद्धि प्राप्त कर चुके योगी की आंतरिक स्थिति का वर्णन करते हैं।
स्थिर मन और आत्म-साक्षात्कार:
- जब मन पूरी तरह से विषयों से हटकर आत्मा में स्थित हो जाता है, तब योग सिद्ध होता है। वह स्थिति स्थिर दीपक के समान होती है जो वायु रहित स्थान में जल रहा हो।
परमानंद की अवस्था:
- जब योगी आत्मा में स्थित होता है, तो उसे ऐसा सुख मिलता है जो इंद्रियों से परे होता है। यह सुख इतना स्थायी होता है कि वह किसी भी दुख से विचलित नहीं होता। यही मोक्ष की अवस्था है।
मन की निगरानी और अभ्यास:
- श्रीकृष्ण कहते हैं – इच्छाओं को त्यागकर, धीरे-धीरे अभ्यासपूर्वक मन को आत्मा में स्थिर करना चाहिए। जब मन भटक जाए, तो उसे फिर से आत्मा की ओर ले आना चाहिए।
योगी का दृष्टिकोण:
- सिद्ध योगी सभी जीवों में एक ही आत्मा को देखता है। उसे सभी में ईश्वर दिखाई देता है। वह किसी को न मित्र मानता है, न शत्रु – सभी को समभाव से देखता है।
यहाँ योग का सर्वोच्च फल है – अद्वैत दृष्टि (oneness)।
🔹 4. असफल योगी का क्या होता है?
यहाँ अर्जुन एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं:
“यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा से ध्यान साधना शुरू करे, लेकिन बीच में असफल हो जाए, तो उसका क्या होता है?”
अर्जुन की चिंता:
- क्या वह संसार से भी कट गया और मोक्ष से भी वंचित रह गया?

श्रीकृष्ण का उत्तर
- कोई भी आध्यात्मिक प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता।
- यदि योगी इस जन्म में पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, तो वह अगले जन्म में किसी उच्च कुल में जन्म लेता है – या किसी ज्ञानी परिवार में।
- पूर्वजन्म के संस्कार उसे स्वतः ही आध्यात्मिक मार्ग पर प्रेरित करते हैं।
- अनेक जन्मों के अभ्यास से वह अंततः परम सिद्धि प्राप्त करता है।
यह भाग यह सिखाता है कि आध्यात्मिक विकास एक निरंतर यात्रा है।
🔹 5. सर्वोत्तम योगी कौन है?
अंतिम दो श्लोक इस अध्याय की पराकाष्ठा हैं।
- श्रीकृष्ण कहते हैं – तपस्वी, ज्ञानी और कर्मियों से भी श्रेष्ठ योगी है।
- और उन सब योगियों में भी वह श्रेष्ठ है जो मुझमें श्रद्धा और भक्ति के साथ मन लगाता है।
मुख्य निष्कर्ष:
- योग केवल ध्यान की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह प्रेममयी भक्ति के साथ ईश्वर की अनुभूति है।
🌼 मुख्य शिक्षाएँ (Key Takeaways):
🔸 1. सच्चा त्याग क्या है?
फल की अपेक्षा छोड़कर कार्य करना ही सच्चा संन्यास है।
🔸 2. ध्यान की विधि:
- एकांत स्थान में शांतचित्त होकर, संयमित जीवन जीकर, मन को आत्मा में लगाना।
- नियमित अभ्यास और धैर्य आवश्यक है।
🔸 3. मन का संयम:
- मन या तो मित्र होता है या शत्रु।
- अभ्यास और वैराग्य से ही मन वश में आता है।
🔸 4. आत्मिक सुख:
इंद्रियों से परे आत्मा का सुख सबसे उच्च और स्थायी है।
🔸 5. समत्व की भावना:
- सच्चा योगी सबको समान देखता है। न किसी से द्वेष करता है, न पक्षपात।
🔸 6. आध्यात्मिक यात्रा कभी व्यर्थ नहीं:
- हर प्रयास सुरक्षित रहता है। चाहे इस जन्म में सफलता न भी मिले, अगला जन्म उसे फिर से उसी मार्ग पर ले जाएगा।
🔸 7. सर्वोच्च योग:
- जो मन से ईश्वर में लीन रहता है, वही सबसे श्रेष्ठ योगी है।
✅ निष्कर्ष:
भगवद गीता का छठा अध्याय ध्यान योग हमें यह सिखाता है कि सच्चा योग शरीर को मोड़ने की क्रिया नहीं, बल्कि मन और आत्मा की साधना है। यह अध्याय हमें दिखाता है कि ध्यान के माध्यम से हम अपने भीतर स्थित उस परम चेतना से जुड़ सकते हैं जो आनंदमय, चिरस्थायी और शुद्ध है।
ध्यान योग हमें न केवल मानसिक शांति देता है, बल्कि हमें परमात्मा से एकाकार कर देता है। यही आत्म-साक्षात्कार की चरम अवस्था है।
भगवद गीता के छठवें अध्याय (ध्यान योग) का महत्व
परिचय:
भगवद गीता के 18 अध्यायों में से छठा अध्याय, जिसे ध्यान योग कहा जाता है, एक अत्यंत महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक रूप से गहन अध्याय है। यह अध्याय न केवल ध्यान की विधियों का विस्तार से वर्णन करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि मनुष्य किस प्रकार आत्म-संयम, साधना और भक्ति के माध्यम से अपने जीवन को परमात्मा से जोड़ सकता है।
यह अध्याय आत्मज्ञान, साधना और मन की एकाग्रता के क्षेत्र में मार्गदर्शक का कार्य करता है।
1. योग का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य
छठा अध्याय योग के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करता है। यहाँ ‘योग’ केवल शरीर के आसनों तक सीमित नहीं है, बल्कि मन, बुद्धि और आत्मा के संयम का साधन है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि योग का उद्देश्य आत्मा की परमात्मा से एकता प्राप्त करना है। यह अध्याय साधक को बताता है कि कैसे वह अपने मन को वश में करके ध्यान द्वारा ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है।
2. सच्चा संन्यासी और कर्मयोगी कौन है
प्रारंभ में ही श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि सच्चा योगी वही है जो निष्काम भाव से कर्म करता है, न कि वह जो केवल बाहरी रूप से संन्यास धारण करता है। यहाँ एक गहन शिक्षा यह है कि जीवन से पलायन नहीं, बल्कि कर्म करते हुए ध्यानपूर्वक जीना ही सच्चा योग है।
श्लोक 1:
“अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥”
इस श्लोक में यह बताया गया है कि जो व्यक्ति फल की आशा के बिना अपना कर्तव्य करता है, वही सच्चा योगी और संन्यासी है।
3. मन का संयम और उसकी आवश्यकता
यह अध्याय मन की चंचलता को वश में करने के तरीकों पर गहराई से विचार करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन को स्थिर करना ही ध्यान योग की पहली सीढ़ी है। मनुष्य जब तक अपने मन पर नियंत्रण नहीं करता, तब तक वह आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता।
श्लोक 6:
“बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥”
इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन उसका मित्र बन जाता है; लेकिन जिसने ऐसा नहीं किया, उसके लिए मन ही सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।
4. ध्यान की विधि
इस अध्याय में ध्यान की प्रक्रिया और उसकी विधि का बहुत ही व्यावहारिक और वैज्ञानिक वर्णन किया गया है। ध्यान के लिए उचित आसन, एकाग्रता, स्थान की शुद्धता, और सात्त्विक जीवनशैली पर विशेष बल दिया गया है।
श्लोक 10:
“योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥”
योगी को एकांत में रहकर, आसक्ति और संग्रह से मुक्त होकर निरंतर अपने चित्त को संयमित करते हुए ध्यान करना चाहिए।
5. ध्यान की स्थिति में योगी का अनुभव
जब योगी ध्यान में स्थिर हो जाता है, तो वह आत्मा और परमात्मा की एकता को अनुभव करता है। उसे परमानंद की अनुभूति होती है। वह संसार के दुख-सुख से परे हो जाता है।
श्लोक 20-21:
“यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥”
इन श्लोकों में ध्यान की सर्वोच्च स्थिति का वर्णन है, जहाँ योगी अपने भीतर आत्मा का दर्शन करता है और उसी में संतुष्ट होता है।
6. अभ्यास की भूमिका
श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि मन को एकाग्र करने के लिए निरंतर अभ्यास (अभ्यास) और वैराग्य आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति एक दिन में योग की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता, लेकिन नियमित प्रयासों से वह लक्ष्य के निकट पहुंच सकता है।
7. अधूरा साधक क्या होता है?
अर्जुन की जिज्ञासा थी कि यदि कोई योग मार्ग पर चलकर बीच में ही गिर जाए तो उसका क्या होता है? श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति कभी नष्ट नहीं होता। अगले जन्म में वह पुनः श्रेष्ठ परिवार में जन्म पाता है और अपने पूर्व कर्मों के प्रभाव से साधना को पुनः आरंभ करता है।
श्लोक 41-43:
“प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥”
8. सभी योगियों में श्रेष्ठ कौन?
अध्याय का अंतिम श्लोक छठे अध्याय की चरम बिंदु है। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी योगियों में वही सबसे श्रेष्ठ है जो भक्ति भाव से उसकी आराधना करता है।
श्लोक 47:
“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥”
इससे स्पष्ट होता है कि भक्ति ही सभी साधनाओं का सार है और भगवान से जुड़ने का सर्वोत्तम मार्ग।

निष्कर्ष
छठा अध्याय आत्म-संयम, ध्यान, अभ्यास और भक्ति के समन्वय से योग का आदर्श रूप प्रस्तुत करता है। यह अध्याय बताता है कि कोई भी व्यक्ति – चाहे वह गृहस्थ हो या संन्यासी – ध्यान योग के माध्यम से आत्मा की साक्षात अनुभूति कर सकता है। मनुष्य की सबसे बड़ी विजय उसकी स्वयं की वृत्तियों पर नियंत्रण है। यह अध्याय न केवल साधकों के लिए मार्गदर्शक है, बल्कि मानसिक शांति, संतुलन और आत्मिक उन्नति के इच्छुक हर व्यक्ति के लिए प्रेरणास्रोत है।
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